आलोचना >> द्विवेदीयुगीन आख्यान काव्य द्विवेदीयुगीन आख्यान काव्यवी गंगाधरन
|
0 |
प्रस्तुत पुस्तक में शासकीय विवेचन से पृथक इन दोनों तत्त्वों का सांस्कृतिक दृष्टि से विश्लेषण किया है
द्विवेदीयुगीन आख्यान-काव्यों में रूढ़िवादी सामाजिक बन्धनों के प्रति विद्रोह, वर्तमान जीवन-पद्धति के विरुद्ध असंतोष एवं संकुचित मनोवृत्ति के प्रति आक्रोश पाया जाता है। सांस्कृतिक पुनर्जागरण के इस काल में सामाजिक क्रान्ति को विशेष बल दिया। फलत: लोगों में एकता, सेवा, त्याग और बलिदान की भावना ने काव्य में शिवत्व की स्थापना की। इन्हीं कारणों से ही तत्कालीन आख्यान-काव्यों में सांप्रदायिक सामंजस्य, अछूतोद्धार, धर्म एवं जाति के भेदभाव को मिटाने का यथाशक्ति प्रयास किया गया।
प्रस्तुत पुस्तक में मुख्य विषय की आधारशिला संस्कृति की अवधारणा, स्वरूप आदि के विषय में भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों के मतों का विवेचन करते हुए सभ्यता और संस्कृति के सम्बन्ध पर विचार किया गया है। भारतेन्दु युग के अंत और द्विवेदी-युग के पूर्वाभास के संबन्ध में विचार करने के उपरांत तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनैतिक तत्वों की विशद व्याख्या अनिवार्य है, क्योंकि इसी परिवेश में द्विवेदीयुगीन आख्यान-काव्य का उदय हुआ। द्विवेदी युग के आख्यान-काव्यों में संस्कृति के आध्यात्मिक और लौकिक तत्व विभिन्न भूमिकाओं का स्पर्श करते हुए दृष्टिगत होते हैं। भारतीय संस्कृति के सहिष्णुता, त्याग, आध्यात्मिकता, सत्यनिष्ठता, वर्ण-व्यवस्था आदि आदर्शों के साथ व्यावहारिक जीवन प्रकृति में आ मिलने वाले युगानुकूल प्रभावों के कारण होने वाले परिवर्तनों के अन्तराल से शाश्वत तत्त्वों तक पहुँचने का प्रयास अत्यंत मनोरंजक होने के साथ-साथ भारतीय चिन्तनधारा के विकास-क्रम को समझने में सहायक भी हैं।
कथानक और चरित्र आख्यान-काव्य के प्रमुख तत्व हैं, इनके माध्यम से ही प्राय: कवि अपने उद्देश्य तक पाठकों को पहुँचाता है। प्रस्तुत पुस्तक में शासकीय विवेचन से पृथक इन दोनों तत्त्वों का सांस्कृतिक दृष्टि से विश्लेषण किया है। पुस्तक के अन्त में द्विवेदीयुगीन आख्यान काव्यों का विशद् अध्ययन करने के उपरान्त कुछ निष्कर्ष प्रस्तुत किये गये हैं।
प्रस्तुत मुस्तक के लेखक डा० वी० गंगाधरन कालीकट स्थिति नेहरू आर्ट्स एण्ड साइन कालेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं।
|